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इतिहासकार रामचंद्र गुहा का तथाकथित राष्ट्रवाद

  • लेखक की तस्वीर: Shashi Prabha
    Shashi Prabha
  • 29 मार्च 2022
  • 6 मिनट पठन

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"बंद खिडकियां और अज्ञात भय के खतरे "शीर्षक से रामचंद्र गुहा का लेख अमर उजाला के दिनांक 27 मार्च 2022 के अंक में पढ़ने को मिला , जिसमें सन 1942 के गुलाम भारत के तत्कालीन राष्ट्रवाद की तुलना , श्री नरेंद्र मोदी ,अमित शाह एवम् आरएसएस से की गई है ,और सीना तान कर कह रहे हैं कि इन के पास विश्व को सिखाने के लिए कुछ नहीं है और यह खुद भी विश्व से सीखना नहीं चाहते हैं ।


गुहा अपना राष्ट्रवाद अपने पास रखें । पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर इतिहास लिखना एवं इतिहास की व्याख्या करना शोभा नहीं देता है । विश्व स्तर पर नरेंद्र मोदी जी प्रसिद्धि के मामले में नंबर एक पर आते हैं और इतिहासकारों की यह लॉबी जहां अटकी है वहीं अटकी पड़ी है ।गलत राग छोड़िए ! यह भारत है जहां विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी चलेगा ?


रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में बताया है कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, भूमिगत रहते हुए उषा मेहता ने कांग्रेस रेडियो की शुरुआत की थी जिससे प्रसारित होने वाले बुलेटिन में भारतीय राष्ट्रवाद की भावना निहित होती थी लेकिन अब हम ऐसे भारत में रह रहे हैं जो एक अलग तरह से परिभाषित राष्ट्रवाद को समर्पित है । 1942 को गांधीजी एवं कांग्रेस के अन्य नेताओं के गिरफ्तार हो जाने के बाद उषा मेहता ने एक भूमिगत रेडियो की स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई , जिससे गुप्त स्थानों में उत्साहवर्धक बुलेटिन प्रसारित होते थे ताकि उन देशभक्तों में आजादी की भावना को जिंदा रखा जा सके जिन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका था । कांग्रेस रेडियो की शुरुआत के समय उषा मेहता की उम्र लगभग 21 - 22 वर्ष रही होगी । ब्रिटिश प्रशासन ने रेडियो के ठिकाने का पता लगाया । उषा मेहता गिरफ्तार कर ली गई और कुछ वर्ष जेल में गुजारे । रिहाई के बाद उषा मेहता ने पढ़ाई जारी रखी और बॉम्बे यूनिवर्सिटी में राजनीति की एक प्रसिद्ध प्राध्यापक बन गई । साथ ही मणि भवन (यहां गांधीजी अक्सर आ कर रहते थे ) के प्रबंधन में भी भूमिका निभाई ।

उषा मेहता के भूमिगत रहते कांग्रेस रेडियो शुरू करने की कहानी का जिक्र, उषा ठक्कर की हाल ही में आई किताब 'कांग्रेस रेडियो: उषा मेहता एंड अंडर ग्राउंड रेडियो ऑफ 1942 ' सामने आया है । उषा ठक्कर, उषा मेहता की तरह ही मणि भवन के प्रबंधन से जुड़ी रहीं हैं ।


रामचंद्र गुहा का मानना है 20 अक्टूबर 1942 को कांग्रेस रेडियो से प्रसारित बुलेटिन वर्तमान से सीधे संवाद करता है -- "संसार के समस्त लोगों के लिए भारतीय लोगों ने उम्मीद , शांति और सद्भाव का संदेश दिया है आइए आज हम एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर की गई हिंसा को भूल जाएं । हमें सिर्फ यही याद रखना है कि सही मायने में शांतिपूर्ण और बेहतर दुनिया की स्थापना के लिए हमें प्रत्येक देश की दया और प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत कृत्यों की जरूरत है ।हमें जर्मनी की तकनीकी दक्षता ,उसके वैज्ञानिक ज्ञान और उसके संगीत की जरूरत है ।हमें इंग्लैंड की उदारता ,उसके साहस और साहित्य की जरूरत है । हमें इटली की स्वच्छता की जरूरत है । हमें रूस की पुरानी उपलब्धियों और नई कामयाबीयों की जरूरत है । हमें हंसी के उपहार की जरूरत है । सुंदर हंसी प्रेमी ऑस्ट्रिया की जरूरत है । हम चीन के बारे में क्या कहें हमें उसकी ज्ञान , उसके साहस और उसकी नई उम्मीद की जरूरत है । हमें युवा अमेरिका के रोमांच की चमक और हौसले की जरूरत है । हमें आम लोगों की ज्ञान और बच्चों जैसी सादगी की जरूरत है । शांति के पुनरुत्थान के लिए ,अपनी गरिमा के उत्थान के लिए ,हमें सभी मानव जाति की आवश्यकता है ।

रामचंद्र गुहा के अनुसार "इस संदेश की भावना वही थी जो उस समय की राष्ट्रवाद की भावना थी "। गुहा के अनुसार" आज हम एक ऐसे वातावरण में रह रहे हैं जो अलग तरह से राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है । ऐसे राष्ट्रवाद को कट्टर ,अंध राष्ट्रवाद कहना ज्यादा उचित होगा । यह राष्ट्रवाद धार्मिक श्रेष्ठता के अस्थिर दावों पर टिका हुआ है । ऐसा राष्ट्रवाद भारतीय उद्यमिता को पोषित करने के बहाने केवल अक्षमता और याराना पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहा है ।"

रामचंद्र गुहा का कहना है "इसी प्रकार की बातें हमारी शैक्षिक नीतियों में भी आज नजर आती हैं जहां आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान की कीमत पर हिंदू श्रेष्ठता को आगे बढ़ाने के कपट पूर्ण प्रयास किए जाते हैं।"


गुहा मानते हैं "आज का राष्ट्रवाद भारत के भीतर ही सांस्कृतिक परंपराओं की विविधता पर एक क्रूर हमले से भरा हुआ है । उदाहरण के रूप में भारतीयों पर समान संहिता थोपना कि वे क्या पहन सकते हैं क्या नहीं पहन सकते हैं, क्या खा सकते हैं क्या नहीं खा सकते हैं , किससे शादी कर सकते हैं ,किससे नहीं कर सकते हैं ।"


रामचंद्र गुहा का मानना है कि "जो लोग आधुनिक भारत के निर्माता हैं उन लोगों ने दुनिया भर में व्यापक रूप से यात्राएं की थी" । गुहा के अनुसार "राम मोहन रॉय पहले भारतीय महानगरीय थे जिनके वैश्विक दृष्टि की ताकत को रविंद्र नाथ टैगोर ने पहचाना जिन्होंने स्वयं एशिया ,यूरोप ,उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका की व्यापक यात्राएं की थी और उन सब देशों से वह अर्जित किया था जो उनको लगता था कि वह उनके लिए एवम् भारत के लिए आवश्यक है "।गुहा के अनुसार "गांधी नेहरू अंबेडकर कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी समुद्र पार की व्यापक यात्राएं की हैं जिनसे उनका व्यक्तित्व निखरा था ।"


रामचंद्र गुहा को ऐसा क्यों लगता है कि मोदी का व्यक्तित्व निखरा हुआ नहीं है । गुहा जैसे लोगों को मुख्य परेशानी तो यही है कि इनका व्यक्तित्व बहुत ज्यादा निखरा हुआ है । इनके नेतृत्व में भारत किसी के रहमों करम पर नहीं है भारत अब दया का पात्र नहीं है।


भारत मोदी के मजबूत हाथों में है , मोदी जी के नेतृत्व में भारत आगे बढ़ रहा है । विश्व भारत की ओर देख रहा है ।आज भारत का कद विश्व में बहुत ऊंचाई पर है । इतिहासकारों की ऐसी लॉबी भारत को फिर से सुलाने पर आमादा है । यह वही लॉबी है जो भारतीय एकता की भी दुश्मन है । यह वह लॉबी है जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं वरन भारत को कई राष्ट्रों का समूह मानती है । गुहा भारत को क्यों गुलामी के उस दौर में ले जाना चाहते हैं जहां लॉर्ड कर्जन जैसे लोग भारत को चालाकी एवं धूर्तता वाला देश बताते थे । यह भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के लिए बड़ा अपमान जनक है।


1942 में दासता की जंजीरों से युक्त भारत की अपनी आवाज नहीं थी कॉन्ग्रेस सिर्फ इधर उधर से उधार लेकर ही चलना चाहती थी भारत के पास अपना भी कुछ रहा है या है इसमें कांग्रेस का न उस समय विश्वास था और न ही आज है ।


कांग्रेस ,कम्युनिस्ट पार्टी एवं वाममार्गी के पास , भारतीय संस्कृति को, भारत को देने के लिए न पहले पूछ था और न ही आज कुछ है । ये सभी लोग यह मानना भी नहीं चाहते हैं कि भारतीय सभ्यता ,संस्कृति की जड़ें बहुत गहरी हैं । यह सबको साथ लेकर चलने वाली संस्कृति रही है । विविधता में एकता ही इसका सूत्र एवं सार रहा है ।वसुधैव कुटुंबकम अपनी संस्कृति की सोच है ।


यह सोच इतनी विशाल है कि कांग्रेस एवं वाममार्गी इसको समझने को तैयार ही नहीं है ।यह शुरू से मानते हैं कि भारत के पास दूसरों को देने के लिए कुछ नहीं है ।भारतीय हितों के खिलाफ विदेशों से हाथ मिलाना इन की पुरानी आदत है 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट लोगों ने भाग नहीं लिया था । उनके अनुसार ऐसा करने से रूस नाराज हो जाएगा । आज भी ये भारतीय हितों के मूल्य पर चीन एवं पाकिस्तान के हितों की चिंता ज्यादा करते हैं ।

दुआ ने जो आरोप लगाया है मोदी ,अमित शाह जैसे लोगों को आकार देने वाली आरएसएस की सोच हमेशा से ही अलगाववाद और जेनोफोबिया (अज्ञात भय )का अड्डा रही है । उसकी श्रेष्ठ (जो कभी थी ही नहीं) पैतृक आस्था की सोच काल्पनिक है और कसम खिलाकर ऐसे दुश्मनों (जिसका कहीं अस्तित्व ही नहीं है) से बदला लेना सिखाया जाता है और रटाया जाता है कि हिंदू मानवता के ' विश्व गुरु' बनेंगे ।


दुआ जैसे लोगों को यह स्वीकार करने में क्यों शर्म महसूस होती है कि भारत की पैतृक आस्था ,जिसमें उसके शिक्षण संस्थान - नालंदा ,तक्षशिला, विक्रमशिला जैसी महान विश्वविद्यालय शामिल थे ,यह सब कल्पना नहीं है । आरएसएस और इसके द्वारा आकार देकर गढ़े गए व्यक्तित्व, इसी स्वर्णिम युग के लिए एक बार पुनः प्रयास रत हैं , जिनसे विश्व ने पूर्व में बहुत कुछ लिया है ।


ऐसे इतिहासकारों को पुरातन स्वर्णिम भारत से भय लगता है क्योंकि इनके अनुसार उस भारत को पुनर्स्थापित करने से इनको कोई पूछेगा नहीं और इस तरह इनका वर्तमान अंधकार में चला जाएगा । यह जिस एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं वह धूमिल हो जाएगा ।


ऐसे इतिहासकारों को सावधान हो जाना चाहिए और श्री नरेंद्र मोदी , अमित शाह ,हिंदू धर्म एवं आरएस एस की शाखाओं को कोसना बन्द करना चाहिए । इन पर आक्षेप लगाना बंद करें कि "इनसे विश्व कुछ सीख सके ऐसा कुछ इनके पास नहीं है और इससे भी अधिक खेद की बात यह है कि यह दुनिया से कुछ भी नहीं सीखना चाहते हैं " । बड़े शर्म की बात है इस प्रकार की सोच देश के नेतृत्व के लिए रखना।


ऐसी सोच के लोगों को मानना पड़ेगा अब भारत की आवाज मेमना की आवाज़ नहीं है अब तो शेर की दहाड़ है ,और गुहा जैसे इतिहासकारों को यह बात अब समझ में अच्छी तरह आ जानी चाहिए।




 
 
 

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